डलवा (नेपाल) में कोसी तटबन्ध में पड़ी पहली दरार- 21 अगस्त 1963

दिनेश कुमार मिश्र

31 मार्च, 1963 के दिन कोसी नदी को भारत के भीम नगर और नेपाल के हनुमाननगर के बीच नवनिर्मित 3,770 फुट लम्बी बराज से होकर पहली बार गुजारा गया। इस अवसर पर इस स्थल पर बिहार के मुख्यमंत्री बिनोदानन्द झा, सिंचाई और विद्युत मंत्री दीप नारायण सिंह, कृषि मंत्री बीरचंद पटेल और कोसी योजना के मुख्य प्रशासक टी. पी. सिंह आदि मौजूद थे। इस बराज के निर्माण से कोसी नदी को नाव से पार करने की बाध्यता समाप्त हो गयी और नदी को पैदल या वाहन की मदद से पार करना सम्भव हो गया था। इस समय नदी का प्रवाह 12 हजार क्यूसेक था और इसे इंजीनियरों की एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जा रहा था।1 

जून महीने के अन्त से भारत नेपाल सीमा से लगे नेपाल के डलवा गाँव के पास कोसी पश्चिमी तटबन्ध की ओर खिसकने लगी थी और जुलाई महीने के तीसरे सप्ताह में कोसी के पश्चिमी तटबन्ध पर भारत-नेपाल सीमा पर नेपाल के डलवा गाँव के बगल में पहुँच कर कटाव कर रही थी और इस तटबन्ध पर खतरा आ गया था। तब तटबन्ध के सुरक्षा कार्यों में तेजी आयी और मुख्यमंत्री समेत राज्य के और केंद्र के सिंचाई मंत्री का यहाँ आना-जाना शुरू हुआ क्योंकि कटाव नेपाल में हो रहा था और इसे बचाने का दायित्व भारत सरकार का था। तटबन्ध टूट जाने की दशा में पानी को बाहर जाने से रोकने के लिये रिटायर्ड लाइन बनाने का काम शुरू हुआ। जुलाई के अन्त में नेताओं और चीफ इंजीनियर ने सभी को सुरक्षा के प्रति आश्वस्त भी किया मगर कोई हिकमत काम नहीं आयी और  यह तटबन्ध डलवा के पास 20 अगस्त के दिन कोसी की चपेट में आ गया और अगले दिन रिटायर्ड भी कट गयी। दोनों सुरक्षा पंक्तियों के कटने के बाद नदी का पानी बाहर कन्ट्रीसाइड में छः इंच से लेकर डेढ़ फुट की गहराई में बहने लगा। इस पानी को भारत में प्रवेश करने में देर नहीं लगी और लोगों का योजना के प्रति सारा उत्साह सन्देह के दायरे में आ गया।

इस दरार के बारे में सहरसा गैजेटियर (1965) के अनुसार सहरसा जिले के सुपौल  सब-डिवीजन की 31 एकड़ जमीन पर लगी खड़ी फसल पूरी तरह और 961 एकड़ पर लगी खेती की जमीन पर फसल आंशिक रूप से नष्ट हुई। अनुमान किया गया था कि इस दरार की वजह से 8,180 मन अनाज के उत्पादन को नुकसान पहुँचा। डलवा में पड़ी इस दरार का असर सहरसा सदर के कुछ गाँवों पर भी पड़ा था। सुपौल अंचल का भुसकौल गाँव पूरी तरह से कट कर नदी में समा गया था। इस गाँव के बाशिंदों का पुनर्वास तुरन्त सुपौल शहर के उत्तर में कर दिया गया था और इसके साथ 13 अन्य गाँवों में राहत सामग्री बाँटी गयी। इन गाँवों के नाम मरौना अंचल के निर्मली, बेलवा, मुराही, जोबहा, एकडारा, पिपराही, कुनौली, कमलपुर तथा हरपुर और सुपौल अंचल के मनोहर पट्टी, सरौंजी, कोनी तथा बसबिट्टी थे।2

कोसी तटबन्ध टूटने की इस पहली घटना की जानकारी हासिल करने के लिये हमने पश्चिमी तटबंध से सटे भारत के कमलपुर गाँव के 72 वर्षीय श्री सुशील कुमार झा से बातचीत की। उन्होनें जो कुछ भी बताया उसे हम उन्हीं के शब्दों में उद्धृत कर रहे हैं, “मेरा गाँव कमलपुर, प्रखंड निर्मली, जिला सुपौल में पश्चिमी कोसी तटबन्ध के कंट्रीसाइड में भारत-नेपाल सीमा के पास पड़ता है। भारत-नेपाल सीमा और हमारे गाँव के बीच में भारत का आखिरी गाँव कुनौली है और सीमा के उस पार नेपाल का पहला गाँव डलवा है। 1963 में मैं 14-15 साल का रहा होऊंगा और छठी कक्षा में कुनौली उच्च विद्यालय में पढ़ता था। हमारे गाँव में केवल प्राइमरी स्कूल ही था और आगे की पढ़ाई के लिये कुनौली ही जाना पड़ता था।

“1963 में नेपाल में डलवा गाँव में कोसी का पश्चिमी तटबन्ध टूट गया था और वहाँ से पानी निकल कर बाहर आ गया था भले ही उसकी गहराई और परिणाम बहुत खतरनाक नहीं था। डलवा से निकला हुआ पानी नेपाल के डलवा, तिलाठी और रामपुरा गाँवों से होता हुआ भारत में कुनौली को छूता हुआ कमलपुर तक आया था और यहाँ से दक्षिण दिशा में सकरदेही नदी के माध्यम से तिलयुगा नदी की ओर चला गया। तिलयुगा कोसी की एक सहायक धारा है जिस पर तब भी तटबन्ध बना हुआ था। कुनौली थोड़ा ऊँचाई पर है इसलिये यह पानी वहाँ के बाजार में तो नहीं गया लेकिन उस को छूता हुआ आगे की ओर बढ़ा और हमारे गाँव होता हुआ नीचे की ओर चला गया था। उस समय के स्थानीय विधायक बैद्यनाथ मेहता हमारे ही गाँव के थे। जिस दिन गाँव में पानी घुसा उस दिन विधायक जी गाँव में नहीं थे। उनके बड़े भाई रघुनाथ मेहता ने गाँव की कमान सम्भाली हुई थी। गाँव में जब पानी घुसा तो वह हरकत में आये और गाँव के जो लोग इस पानी से बचने के लिये कोसी तटबन्ध पर चले गये थे उनको वह वहाँ से नाव से निकाल कर गाँव के प्राथमिक विद्यालय में ले आये जो कुछ ऊँची जगह पर था। यह उस समय जरूरी हो गया था क्योंकि हमारे गाँव के रास्तों पर तथा अधिकांश घरों में कोसी का पानी फैल गया था। हमारे गाँव का स्कूल अभी भी पानी के ऊपर था। जब हम लोग गाँव के स्कूल आ गये तब पानी कुछ घटना शुरू हुआ और वह नीचे जाकर तिलयुगा के किनारे राजपुर गाँव के पास उसके तटबन्ध पर अटक गया। पानी की निकासी न होने से उसका लेवल बढ़ना शुरू हुआ। उस गाँव के कुछ साहसी युवकों ने लोगों के बहुत मना करने के बावजूद तिलयुगा के बाँध को काट दिया और यह सारा पानी तिलयुगा के रास्ते कोसी तटबन्ध में बने स्लूइस से होता हुआ कोसी नदी से जा मिला। वैसे भी ऊपर से आने वाला वर्षा का पानी इस जगह तिलयुगा के तटबन्ध पर लगभग हर साल अटकता ही था भले ही उसकी मात्रा और वेग इतना नहीं होता था जितना इस साल हो गया था। इस पानी की निकासी के लिये राजपुर और आसपास के गाँव वाले उसे काट दिया करते थे। ऐसा प्राय: हर साल-दो साल पर होता ही रहता था।

“हमारे गाँव में और तटबन्धों के अन्दर के गाँवों में भी धान लगा हुआ था और वह एक दिन तो जरूर पूरा का पूरा पानी में डूबा रहा होगा। इतने कम समय में डूबे रहने पर धान को उतना नुकसान नहीं पहुँचता है, वह वापस फिर खड़ा हो जाता है। अगर यही धान चार-छ: दिन तक पानी में डूबा रह जाये तब फिर वह खराब हो जाता है। फिर भी, हम लोगों के यहाँ दस आना धान हो गया था। इस तरह से धान की उतनी क्षति नहीं हुई थी। ताजी मिट्टी खेतों में पड़ जाने से उस साल रब्बी की फसल बहुत अच्छी हुई थी। खेसारी और तीसी की फसल काफी जोरदार हुई थी। गेहूँ हमारे यहाँ उतना ही होता था या किया जाता था जिससे तीज-त्यौहार पर पूजा-पाठ के लिये या किसी अतिथि के आने पर स्वागत-सत्कार में पूड़ी बन सके वरना सभी लोग चावल ही खाते थे। किसान एक आध-कट्ठा ही गेहूँ बोते थे और बाकी मांगलिक काम तो जौ से होता था और वह भी बहुत ज्यादा नहीं बोया जाता था।

“डलवा से तटबन्ध को तोड़ कर निकला हुआ पानी ज्यादातर हमारे सहरसा जिले के मरौना प्रखंड के गाँवों से होता हुआ आगे बढ़ा और वहाँ उसे फैलने का भी मौका मिल गया था क्योंकि उसके सामने कोसी तटबन्धों के अंदर कोई अवरोध नहीं था। हमारा गाँव कमलपुर और हरपुर एक तरह से इस पानी के मुहाने पर पड़ गये थे इसलिये यहाँ नुकसान ज्यादा हुआ था।

‘हमारी ज्यादातर जमीन बाँध के अन्दर ही पड़ती है। यह तटबन्ध भी हमारी जमीन से गुजरा है। हमारी बहुत सी जमीन पुनर्वास में भी चली गयी थी। मेरी दादी इस तटबन्ध को बहुत कोसती थी कि इसकी वजह से हमारी पूरब और पश्चिम दोनों तरफ वाली जमीन बरबाद हो गयी, पूरब में नदी के कटाव और खेतों पर बालू पड़ जाने की वजह से तथा पश्चिम में जल-जमाव से। डलवा में तटबन्ध को तोड़ कर निकला हुआ पानी तिलयुगा के माध्यम से आगे बढ़ता हुआ कोसी में मिलने के क्रम में कई गाँवों को तबाह करके ही आगे बढ़ा था और उन गाँवों की तो एक तरह
से शामत आ गयी थी। सरकार की ओर से कुछ रिलीफ इन गाँवों में जरूर बाँटी गयी थी।

‘यहाँ साइट पर एक अय्यंगार साहब एग्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर थे जो बहुत कड़क और उसूलों के पक्के आदमी थे। बाँध टूटने के बाद जब हमारे एम.एल.ए.साहब उनसे मिलने के लिये गये थे कि बाँध की मरम्मत के लिए मजदूरों की अगर जरूरत हो तो वह व्यवस्था कर देंगे। अय्यंगार साहब ने साफ मना कर दिया था कि उन्हें मजदूरों के नाम पर पार्टी कार्यकर्ताओं की जरूरत नहीं है। कार्यकर्ताओं के आने से नेता-मंत्री आते, गाड़ी-घोडा आता, भाषण बाजी होती और बिना बात मेला लगता। उन्होनें मेहता जी से कहा कि वह अपना काम और जिम्मेदारी अच्छी तरह समझते हैं और उन्हें किसी की मदद नहीं चाहिये। बैद्यनाथ बाबू भी उतने ही सिद्धांतवादी थे। उन्होंने इस घटना के लिये जिम्मेदार व्यक्तियों की विधानसभा में अच्छी खबर ली थी।‘3

इस दरार के बारे में सहरसा गैजेटियर (1965) के अनुसार सहरसा जिले के सुपौल  सब-डिवीजन की 31 एकड़ जमीन पर लगी खड़ी फसल पूरी तरह और 961 एकड़ पर लगी खेती की जमीन पर फसल आंशिक रूप से नष्ट हुई। अनुमान किया गया था कि इस दरार की वजह से 8,180 मन अनाज के उत्पादन को नुकसान पहुँचा। डलवा में पड़ी इस दरार का असर सहरसा सदर के कुछ गाँवों पर भी पड़ा था। सुपौल अंचल का भुसकौल गाँव पूरी तरह से कट कर नदी में समा गया था। इस गाँव के बाशिंदों का पुनर्वास तुरन्त सुपौल शहर के उत्तर में कर दिया गया था और इसके साथ 13 अन्य गाँवों में राहत सामग्री बाँटी गयी। इन गाँवों के नाम मरौना अंचल के निर्मली, बेलवा, मुराही, जोबहा, एकडारा, पिपराही, कुनौली, कमलपुर तथा हरपुर और सुपौल अंचल के मनोहर पट्टी, सरौंजी, कोनी तथा बसबिट्टी थे।2

अगस्त महीने के मध्य में सहरसा जिले के सुपौल अनुमंडल में कोसी नदी का कटाव काफी तेज हो गया था। कोसी तटबन्धों के बीच मनोहर पट्टी साहाय्य क्षेत्र के  जोबहा बस्ती का मुसहरी टोला और उत्तरी टोले के साथ-साथ एकडारा और पीपरपांती आदि बस्तियाँ पूरी की पूरी कट कर  नदी में समा गयी थीं। सिसौना का पूर्वी टोला, मरौना, कोनी आदि बस्तियों में घरों का बहुत नुकसान हो चुका था। भपटियाही ग्राम पंचायत के कुछ गाँवों में, जो कोसी तटबन्ध के भीतर पड़ते थे, कटाव लगा हुआ था। ऐसे गाँवों में कोनी, सियानी आदि के नाम लिये जाते थे। लछमिनिया नाम की एक बस्ती, जो एक बार पहले भी कट चुकी थी और जिसे नयी जगह पर बसा दिया गया था, पूरी की पूरी कट कर नदी में समा गयी। इसी तरह बेलवा और नरहिया गाँव भी पूरे कट गये थे। मुराही, निर्मली कदम टोला, बेला, खापटोला, सुकैला, डुमरिया आदि गाँवों के कई घर कट गये थे और कटाव अभी भी जारी था। इस कटाव के कारण धान, मकई, मड़ुआ, पाट आदि फसलें बर्बाद हो चुकी थीं। सरकार की तरफ से यहाँ राहत सामग्री भेजने की व्यवस्था की जा रही थी।

इस घटना के बाद भी कोसी के पश्चिमी तटबन्ध पर 12 से 13 किलोमीटर के बीच नदी पश्चिमी कोसी तटबन्ध से सट कर बह रही थी और यह चिन्ता का विषय था। यहाँ तटबन्ध के साथ कोई भी दुर्घटना होने पर बथनाहा, कुनौली, कमलपुर, हरिपुर और पिपरा टोला पर खतरा हमेशा आसन्न था।4

बैद्यनाथ मेहता ने विधानसभा में इस दरार के ज़िम्मेवार इंजीनियरों और प्रशासन पर कम फब्तियाँ नहीं कसीं। उन्होनें कहा कि, “घटना घट रही थी और इनके चीफ इंजीनियर आराम से सो रहे थे। जहाँ पर इनके चीफ इंजीनियर थे वहाँ से डलवा सिर्फ 26 किलोमीटर की दूरी पर था लेकिन वे नहीं गये। उनको तो चाहिये था कि वहाँ पर कैंप देकर रहते तो उसको टूटने से रोकते या उससे कुछ ही दूर पर कोसी का इंस्पेक्शन बैंग्लो था उसी में रह कर इस काम को करते लेकिन उन्होनें ऐसा नहीं किया…इस बाँध के टूटने का नतीजा यह हुआ कि 15 लाख रुपया उसको बचाने में खर्च हुआ और रिपेयर करने में भी एक करोड़ पंद्रह लाख रुपया खर्च हो गया…उस रुपये से एक दूसरा प्रोजेक्ट बन सकता था।“5

कोसी परियोजना के पूर्व चीफ इंजीनियर पी. एन. त्रिवेदी ने लेखक को बताया था कि, ”डलवा में तटबन्ध में घुमाव था और घुमाव इसलिये था कि जनता की माँग पर तटबन्ध का अलाइनमेंट बदल दिया गया था। इस तटबन्ध का तो डिज़ाइन से कोई वास्ता ही नहीं बचा था। जिसने जैसा चाहा मोड दिया, जहाँ जनता का दबाव नहीं था वहाँ राजनीतिज्ञों का दबाव था। घुमावदार होने के कारण तटबन्ध की ओर नदी को बढ़ने में मदद मिली। पूना के रिसर्च स्टेशन में मॉडल टेस्ट के आधार पर सब फैसले होते थे। वहाँ का डाइरेक्टर बताता था कि उस पर दोनों तटबन्धों के बीच की दूरी घटाने का जबर्दस्त राजनैतिक दबाव था। हालत यह थी कि जनता और नेताओं के दबाव में अगर कोसी प्रोजेक्ट द्वारा फैसले लिये जाते तो पूर्वी और पश्चिमी तटबन्ध मिल कर एक हो जाते और नदी कहाँ और कैसे बहती, पता नहीं। आप सिर्फ मोडेल टेस्ट करवा के नदी की स्वच्छंदता को नहीं रोक सकते। उसके लिये और भी बहुत कुछ करना पड़ता है।“6

इस घटना पर एक टिप्पणी तत्कालीन स्थानीय सांसद यमुना प्रसाद मण्डल द्वारा की गयी थी कि’ “डलवा के निकट जो खतरनाक स्थिति उत्पन्न हो गयी थी, उस पर हमने अधिकारियों का ध्यान आकृष्ट किया लेकिन मैं यह कहते हुए लज्जित हूँ कि उस दुरावस्था की ओर उस समय कदम नहीं उठाया गया।“7 उस समय नेताओं को शर्म आती थी मगर हम भविष्य में आने वाली घटनाओं में देखेंगें कि शर्मिंदा होने का रिवाज किस तरह से धीरे-धीरे खत्म हो गया।        

सितम्बर महीनें के पहले सप्ताह में  कोसी नदी ने नेपाल सीमा के अन्दर बराज के उत्तर में कटाव करना शुरू कर दिया था और नदी का पश्चिमी अफ्लक्स बाँध तीन हजार फुट की लम्बाई में धँस गया था। वहाँ स्थिति थोड़ा गम्भीर हो गयी थी क्योंकि कुछ दिन पहले डलवा में कोसी नदी का पश्चिमी तटबन्ध टूट चुका था और उसके दोहराये जाने की आशंका बनी हुई थी। इधर भारतीय सीमा में कोसी, कमला-बलान, भुतही बलान, बिहुल, पाँची, धोकरा, घोरदह, खड़क आदि नदियों में फिर बाढ़ आ गयी थी जिससे लौकही, घोघरडीहा और फुलपरास थानों में लोगों की परेशानियाँ एक बार फिर बढ़ गयी थीं।

कोसी नदी पर अब (1963) बराज तथा तटबन्धों  का निर्माण हो चुका था तो बाढ़ सामान्य ही थी क्योंकि कोसी अब तटबन्धों के बीच ही सीमित हो गयी थी। कोसी तटबन्धों के बीच 224 गाँव फँसे हुए थे और ऐसी जगहों पर बाढ़ एक आम बात है। सहरसा के सुपौल सब-डिवीजन के पाँच अंचल सुपौल, मरौना, निर्मली, बीरपुर और किशनपुर तथा सदर सब-डिवीजन के महिषी और धरहरा अंचल ऐसे हैं जहाँ बाढ़ प्रायः हर साल आती है और वह इस साल भी आयी और यह गाँव तबाह हुए। 6 अगस्त, 1963 से कोसी ने अपने पश्चिमी तटबन्ध का कटाव करना शुरू कर दिया था। शुरू-शुरू में नदी तटबन्ध से करीब 210 फुट की दूरी पर थी। धीरे-धीरे यहाँ हालात बिगड़ने लगे और नदी लगभग आधे मील तक तटबन्ध को छूते हुए बहने लगी। इस रिपोर्ट में कटाव वाले स्थल का नाम नहीं दिया है पर इस वर्ष भारत-नेपाल सीमा के उस पार नेपाल का पहला गाँव डलवा नाम का पड़ता है। यहाँ इस नदी से तटबन्ध में कटाव लगा था और 21 अगस्त को पश्चिमी तटबन्ध कटते-कटते टूट गया था और कटे हुए स्थान से नदी का पानी बाहर भी आया था और नेपाल के कुछ परिवारों को विस्थापित होना पड़ा था। वहाँ बिहार (भारत) सरकार को राहत कार्य भी चलाना पड़ गया था।8

1963 की कोसी की बाढ़ का कुछ विवरण सहरसा गजैटियर (1965)  में मिलता है जिसका कुछ अंश हम यहाँ उद्धृत कर रहे हैं।

राहत कार्य शीघ्र और बड़े पैमाने पर शुरू किए गये। तारपोलिन और टिन की चादरें बाढ़ शरण स्थलों के निर्माण के लिये भेजी गईं। प्रभावित गाँवों में नलकूप गाड़े गये और बड़ी संख्या में नावें काम पर लगायी गईं ताकि बाढ़ पीड़ितों को सुरक्षित स्थान तक पहुँचाया जा सके। कार्यरत नाविकों के भुगतान के लिये 42,697 रुपये दिये गये। राहत कार्य को दुरुस्त तरीके से चलाने के लिये पूरे सहरसा जिले को अट्ठारह अलग-अलग क्षेत्रों में बाँटा गया और हर क्षेत्र में राहत का जिम्मा एक राजपत्रित कर्मचारी को दिया गया था।

 अनाज की शक्ल में मुफ्त अनुदान दिये जाने की व्यवस्था की गयी। बीरपुर, किशनपुर, मरौना, सुपौल, निर्मली, महिषी और धरहरा में दूध वितरण केंद्र स्थापित किये गये थे और 950 लोगों को मरौना और सुपौल अंचल में दूध का पाउडर दिया गया था। बाढ़ पीड़ितों की जरूरतों को देखते हुए जिले में 20 सस्ते गल्ले की दुकानें अलग से खोली गईं जबकि 56 ऐसी सस्ते गल्ले की दुकानें बाढ़ के पहले से ही कार्यरत थीं।

 दस स्वास्थ्य केंद्र और दस स्वास्थ्य उप-केंद्र और दस नये पशु चिकित्सालय बाढ़ पीड़ित क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं को बहाल करने के लिये खोले गये थे। इलाके के कुओं का दो-दो बार कीटनाशक दवाओं से उपचार किया गया और महामारी से बचने के लिये लोगों को टीके लगाये गये। किसी भी व्यक्ति या जानवर के मरने की कोई खबर जिला मुख्यालय तक नहीं आयी थी।9

सन्दर्भ

  1. कोसी धारा बराज होकर प्रवाहित, मुख्यमंत्री, सिंचाई मंत्री औए कृषि मंत्री द्वारा निरीक्षण, आर्यावर्त-पटना, 3 अप्रैल, 1963, पृ. 3.
  2. Roy Chaudhary. P.C.; Bihar District Gazetteers, Superintendent, Government Press, Bihar-Patna,        Saharsa, 1965, p-133..
  3. श्री सुशील कुमार झा से व्यक्तिगत सम्पर्क.
  4. बाढ़ और कटाव से सहरसा में बहुत बड़े पैमाने पर बरबादी, आर्यावर्त-पटना, 19 अगस्त, 1963, पृ.5.
  5. मेहता, बैद्यनाथ; बिहार विधानसभा वादवृत्त, कोसी परियोजना का कार्यान्वयन, 25 सितम्बर, 1964, पृ. 7.
  6. बिहार के सिंचाई विभाग के पूर्व चीफ इंजीनियर श्री पी. एन. त्रिवेदी से व्यक्तिगत सम्पर्क.
  7. मण्डल, यमुना प्रसाद; आर्यावर्त-पटना, 5 सितंबर, 1963, पृ. 8.
  8. Report Of The Second Bihar State Irrigation Commission-1994, Vol. V, Part-II, Govt. Of Bihar. p-627-28.
  9. Roy Chaudhary. P.C.; Bihar District Gazetteers, Superintendent, Government Press, Bihar-Patna,        Saharsa, 1965, p-133..

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