तटबन्ध अगर टूटता है तो बाढ़ नहीं आती प्रलय होता है

November - December 2021

दिनेश कुमार मिश्र

नदियों की बाढ़ से बचाव-भ्रम की टाँटी

नदियों की बाढ़ से बचने के लिये जो सबसे आसान तरीका मालूम होता है वह यह है कि  रिहाइशी इलाकों, जिसमें खेती की जमीन भी शामिल है, की रक्षा करने के लिये नदी के किनारे मिट्टी की एक दीवार खड़ी कर दी जाये जिसे हम बोल-चाल की भाषा में बाँध, बन्धा या तटबन्ध कहते हैं। ऐसा करने के समय हम यह भूल जाते हैं कि तटबन्धों के निर्माण के बाद जो पानी सहज भाव से नदी में चला जाता था वह इन तटबन्धों के कारण बाहर अटकता है और कभी-कभी परिस्थितियाँ  ऐसी बनती हैं कि बाहर जलजमाव का लेवल बरसात के मौसम में इतना बढ़ जाता है कि तथाकथित सुरक्षित क्षेत्र के लोग जो पहले नदी के पानी से परेशान रहते थे वह अब जल-जमाव में फँसते हैं। तटबन्धों से होकर नदी के पानी का रिसाव इस समस्या को और भी ज्यादा दुष्कर बनाता है।

प्रकृति द्वारा नदियों को कुछ काम सौंपे गये हैं जिनमें भूमि का निर्माण, भूमिगत जल की सतह को बनाये  रखना तथा उनके पानी के साथ आयी गाद को विस्तीर्ण क्षेत्र पर फैला कर जमीन की उर्वरा शक्ति कायम रखना और इन सब के अतिरिक्त वर्षा के बचे हुए पानी को किसी बड़ी नदी या समुद्र तक पहुँचा देना। जल-चक्र इसी तरह से पूरा होता है।

नदियों के किनारे बने तटबन्धों से वर्षा के पानी का तो ठहराव स्पष्ट है पर अगर कोई उसकी सहायक धारा मिलने के लिये आ जाये तो तटबन्ध उसका मुहाना बन्द कर देते हैं और सहायक धारा अपना पानी मुख्य धारा में नहीं ढाल पाती है। इसके लिये स्लुइस फाटक बना कर व्यवस्था की जा सकती है ताकि इन फाटकों को उठा कर बाहर के पानी को मुख्य नदी में डाल दिया जाये। दिक्कत यह है कि बरसात के मौसम में अगर फाटक खुले रह गये तो मुमकिन है कि मुख्य नदी का पानी ही सहायक धारा में चला जाये। इसलिये इन फाटकों को बरसात में बन्द ही रखना पड़ता है। फाटक अगर बन्द ही करने पड़ें तो उनके होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। तब तथाकथित बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्र जो पहले बड़ी नदी से परेशान रहता था, अब जल-जमाव और सहायक धारा के पानी से परेशान रहेगा। इस दुःस्थिति से बचने का एक ही उपाय है कि सहायक धारा पर भी तटबन्ध बना दिये जायें। यह अगर कर दिया जाये तो फिर मुख्य नदी और सहायक धारा के तटबन्धों के बीच के क्षेत्र का क्या होगा? वहाँ तो वर्षा के पानी की निकासी का कोई रास्ता ही नहीं बचता है।

फिर, आजतक कहीं भी कोई ऐसा तटबन्ध नहीं बना है जो टूटता न हो। तटबन्ध अगर टूटता है तो बाढ़ नहीं आती प्रलय होता है। नदियों के किनारे बसे लोग नदियों के स्वाभाविक तौर पर किनारों के ऊपर से बह कर आने वाले पानी से निपटना तो जानते हैं और वह इसका स्वागर वभी करते हैं मगर तटबन्ध तोड़ कर आने वाली बाढ़ का मुकाबला करना बहुत मुश्किल होता है। बाढ़ जो पहले बिल्ली की तरह आती थी वह अब बाघ बन कर आती है। बिल्ली के साथ क्या करना है यह वह लोग अच्छी तरह जानते हैं पर बाघ के सामने पड़ने पर तो जान की अमान ही माँगनी पड़ती है। नदी के किनारे बने तटबन्धों के साथ एक और भी समस्या है और वह बाढ़ वाले क्षेत्रों में तटबन्धों के बीच रहने वाले लोगों के पुनर्वास की। होना तो यह चाहिये कि उनका पुनर्वास पूर्ण हो जिसमें घर-द्वार और जीविका के साधनों को पूर्ववत बनाये रखा। सीधे शब्दों में इसे जमीन के बदले जमीन और घर के बदले घर कहते हैं। यह जमीन बाढ़ वाले क्षेत्रों में जमीन की उर्वर होने के कारण बहुत कम ही उपलब्ध होती है। ऐसी स्थिति में घर बसाने के लिये जमीन तो मिल जाती है पर खेती की जमीन के बदले जमीन नहीं मिल पाती है और विस्थापितों से यह उम्मीद की जाती है कि वह लोग रहें पुनर्वास में रहें और खेती के लिये अपनी पुश्तैनी जमीन को ही उपयोग में लायें।

खेतों से दूर रह कर खेती करना एक व्यावहारिक समाधान नहीं है। तब होता यह है कि कुछ  दिन पुनर्वास में रह लेने के बाद लोग अपने पूर्वजों के गाँव-घर में वापस लौट आते है। बिहार की नदियों के किनारे पर बने तटबन्धों के विस्थापित इसी त्रासदी से गुजरे हैं। यह समझौता बरसात के दिनों में होने वाले कष्टों को भोगने के विनिमय में ही होता है। सरकार यह दलील देती हैं लोग अपने पूर्वजों की थाती को लेकर इतने आग्रही होते हैं कि वह अपने पुराने गाँव में वापस चले जाते हैं।

ऐसी स्थिति में तटबन्धों के अन्दर (रिवर साइड) रहने वालों और तथाकथित रूप से तटबन्धों के बाहर (कंट्री साइड) में रहने वालों के हितों में टकराव होता है। बरसात आने पर रिवर साइड में नदी का जलस्तर बढ़ता है और वहाँ रहने वालों का जीवन दूभर हो जाता है। घरों में पानी भर जाता है, तब यह लोग मचान बना कर रहते है या तटबंध पर ही आकर रहने लगते हैं।  जानवर लम्बे समय तक पानी में खड़े रहने के कारण बीमार पड़ते हैं। खाना–पीना, आना-जाना, दावा-दारू सभी कुछ अव्यवस्थित हो जाता है। यह लोग सुरक्षित जगहों की तलाश में भटकते हैं और जब पानी सिर से ऊपर जाने लगता है तो चाहते हैं कि किसी तरह अगर तटबन्ध टूट जाता तो उनकी जान बचती। नदी कभी-कभी यह काम कर भी देती है पर कभी-कभी कुछ जाबाँज खतरा उठा कर तटबन्ध को काट देते हैं। इससे उनकी रक्षा हो जाती है पर वह लोग जो अपने को सुरक्षित मानते थे उनके जान पर बन आती है। भुक्तभोगी क्षेत्रों के लिये  ऐसा होना कोई नयी  बात नहीं है। कभी-कभी यह भी होता है कि जल-जमाव से बचने के लिये और बाढ़ के पानी का लेवल बढ़ जाने पर कंट्री साइड के लोग भी तटबन्ध को काट देते हैं। ऐसा खटराग पूरी वर्षा भर चलता रहता है। इन दोनों के बीच तटबन्ध सीमारेखा का काम करते हैं। सौ-डेढ़ फुट के फासले पर हित विपरीत हो जाते हैं।

बिहार की कमलाबलान नदी के तटबन्ध को ग्रामीणों ने काटा          

इसी तरह की एक घटना का जिक्र बिहार (चित्र-1)की कमला-बलान नदी के साथ 1963 में हुआ था। नदी के दोनों किनारों पर इस तटबन्धों के निर्माण का काम 1962 में पूरा कर लिया गया था और एक साल के अन्दर ही यह घटना हुई जब इस नदी के किनारे जल-जमाव और स्लूइस फाटकों के नाकारेपन से परेशान ग्रामीणों ने तटबन्ध को काट कर अपनी जान और खेती को बचा लिया था।

कमलाबलान नदी

यह नदी (चित्र-2) नेपाल में हिमालय में महाभारत शृंखला से सिंधुलिया गढ़ी के पास 1200 मीटर की ऊंचाई से निकलती हुई शीसापानी के पास तराई में उतरती है जहाँ इसका जलग्रहण क्षेत्र 1409 वर्ग किलोमीटर होता है। भारत में यह नदी मधुबनी जिले के जयनगर से साढ़े तीन किलोमीटर उत्तर में प्रवेश करती है। भारत में धौरी, सोनी, बलान, गोबरजई, गेहुमां इसकी मुख्य सहायक धारायें हैं। 1954 में बिहार में एक भयंकर बाढ़ आयी थी जब कमला नदी ने पूरब की ओर बढ़   कर बलान नाम की एक धारा को आत्मसात कर लिया था। तभी से इस नदी का नाम कमला-बलान हो गया था। यह नदी खगड़िया जिले में बदलाघाट के पास कोसी से संगम करती है। इसकी पूरी लम्बाई 328 किलोमीटर है जिसमें 208 किलोमीटर नेपाल में तथा शेष 120 किलोमीटर बिहार में पड़ता है। शीसापानी, जहाँ यह नदी पहाड़ों से उतरती है, जयनगर से 48 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। 1953 दिसम्बर में कोसी नदी पर तटबन्ध बनाने का निर्णय लिया जा चुका था और कमला-बलान पर तटबन्ध बनाने का निर्णय 1955 में लिया गया। 1956 में कमला तटबन्धों का निर्माण शुरू कर दिया गया था जिसे 1962 में पूरा कर लिया गया। इस योजना से 1.92 लाख हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से सुरक्षा मिलनी थी।

ग्रामीणों ने कमलाबलान का तटबन्ध काटा

राम खेलावन

अगस्त, 1963 का पहला सप्ताह समाप्त होने के पहले कमला नदी के पूर्वी तटबन्ध को झंझारपुर के दक्षिण प्रसाद पंचायत के फैटकी गाँव में ग्रामीणों ने काट दिया था। यहाँ गेहुमां  नदी कमला से संगम करती थी मगर कमला का पूर्वी तटबन्ध बन जाने के बाद गेहुमां  का मुँहाना बन्द हो गया और उसके पानी की कमला-बलान में निकासी बन्द हो गयी।  अब गेहुमां   का पानी पीछे की ओर फैल कर बहुत से गाँवों की खेती को नुकसान पहुँचाने लगा। पानी की निकासी और अपनी खेती की जमीन को जल-जमाव से मुक्त करने के लिये किसानों ने बाध्य होकर यह कदम उठाया था। पानी की निकासी के लिये इस तरह के काम की देखा-देखी दूसरे गाँव के किसान भी तटबन्ध न काटने लगें इसलिये तटबन्ध पर ग्रामीणों का आना-जाना वर्जित कर दिया गया था और उसके लिये वहाँ धारा 144 लागू कर दी गयी थी। काटने के फलस्वरूप तटबन्ध  में पड़ी दरार को बन्द करने के लिये सरकार को यह कदम उठाना जरूरी था। वहाँ मजदूरों और कर्मचारियों के अलावा किसी को भी जाने की इजाजत नहीं थी। गाँव वाले ऐसा न करते तो उनकी खरीफ की फसल बरबाद हो जाती।

हमने इस घटना की जानकारी एक प्रत्यक्षदर्शी श्री राम खेलावन मण्डल (आयु 73 वर्ष), ग्राम प्रसाद टोले खैरी, प्रखंड मधेपुर, (तब जिला दरभंगा) से ली। उन्होनें जो कुछ हमें बताया उसे हम नीचे उद्धृत कर रहे हैं।

‘1963 में कमला का बाँध जो यहाँ काटा गया था उस समय में 11वीं कक्षा में जवाहर उच्च विद्यालय, मधेपुर में पढ़ता था। हमारा स्कूल हमारे गाँव से कोई चार-पाँच किलोमीटर होगा। हमारे स्कूल में भी उस साल तीन फुट पानी भर गया था। हुआ यह था कि कमला नदी पर तटबन्ध बन जाने से गेहुमां नदी, जो कमला में आकर मिलती थी, का मुहाना बन्द हो गया था और उसका पानी अगल-बगल और पीछे की ओर फैलने लगा था जिसकी चपेट में बहुत से गाँव आ गये थे और वहाँ भीषण जल-जमाव हो गया था। हमारे स्कूल का परिसर इसी पानी में कमर भर से ज्यादा पानी में डूबा था। धान की फसल भी डूब गयी थी।  तब आसपास के पचही, प्रसाद, खजुरा, खैरी, फैटकी, उमरी और बलिया गाँव के लोगों ने आपस में मिल कर तय किया कि कमला के तटबन्ध को काट दिया जाये तो यह पानी निकल जायेगा और इन गाँवों के लोगों के सहयोग से इस बाँध को काटा गया था।

‘जब यह तटबन्ध बन रहा था तभी यहाँ के चार्ज में जो इंजीनियर था वह यहाँ के गाँव के लोगों से कहता था कि आप लोग इस बाँध के निर्माण का विरोध कीजिये। यह बाँध नहीं होना चाहिये। बाँध बनने के बाद कमला नदी की पेटी ऊपर उठेगी, पानी का लेवल बढ़ जायेगा और आपकी जमीन नदी के मुकाबले नीचे चली जायेगी। कमला यहाँ देने के लिये आयी है, लेने के लिये नहीं आयी। उस समय आप लोग परेशान हो जाइयेगा। उस समय तो उनकी सलाह किसी ने नहीं मानी मगर यह परेशानी 1963 में सचमुच हुई और बाँध को पानी की निकासी के लिये काटना ही पड़ा।

‘बाद में प्रशासन ने उस इलाके को घेर कर पुलिस लगा कर कमला-बलान में पड़ी दरार को बन्द करवा दिया था। तब इसका विरोध गाँव वाले नहीं कर पाये क्योंकि प्रशासन और पुलिस से तो सब डरते ही थे। उस समय तटबन्ध मेँ फाटक नहीं बना था, वह बाद में बना। बाँध काटने का नेतृत्व हमारे ही गाँव के श्यामानन्द झा कर रहे थे और इसके पीछे उनके चाचा हक्कर झा लगे हुए थे। बाँध जब काट दिया गया तो 50-60 लोगों के खिलाफ नामजद एफ.आई.आर. थाने में की गयी और हजार-पाँच सौ अज्ञात लोगों का हवाला भी इस रिपोर्ट में दिया गया था। उस समय हमारे यहाँ के मुखिया जमीर अहमद कुरेशी हुआ करते थे। वह एकदम ठोस आदमी थे और उन्होंने बाँध काटने वालों की जमानत अपने प्रभाव से करवा ली थी। थाना-पुलिस सब हुआ था लेकिन कोई जेल नहीं गया। हमारे गाँव प्रसाद के ही जानकी नन्दन सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे जो बाद में विधायक और मंत्री भी बने। वह भी बहुत प्रभावशाली थे और उनकी वजह से हम लोगों को थोड़ी सहूलियत हो गयी थी। उसके बाद अगर कभी बाँध कहीं टूट जाये तो यहाँ विभाग अपनी जान बचाने के लिये कुछ लोगों पर एहतियातन एफ.आई.आर. करवा दिया करता था कि बाँध टूटा नहीं है, लोगों ने काट दिया है।

‘बाँध जब काट दिया तो गेहुमां का पानी कमला में होता हुआ आगे कोसी से मिलने के लिये चला गया। हम लोगों की धान की फसल का उस साल नुकसान हो गया था क्योंकि गेहुमां के पानी के लम्बे समय तक बाहर रह जाने के कारण फसल डूब गयी थी मगर उसके पानी के साथ खेतों में जो नयी मिट्टी पड़ गयी थी तो रब्बी की बहुत अच्छी खेती उस साल बिना खाद पानी के हुई थी और बाँध काट देने के बाद पानी भी सूख गया था। रब्बी की सफलता से बहुत से लोग, जो खेती नहीं करते थे, वह भी किसान बन गये थे। हमारे यहाँ से तो बाँध काट देने के बाद जल-जमाव घट गया लेकिन वह बगल के भगवानपुर पर चोट करने लगा। वहाँ के लोगों ने भी कई साल तक इसे बर्दाश्त किया पर बाद में उन लोगों ने भी बाँध को काटा।

‘नवटोल, झंझारपुर, गंगापुर, बेलही, गुणाकरपुर, खैरी, फैटकी, भगवानपुर आदि में यह बाँध टूट चुका है या काटा जा चुका है।  बाँध जब टूट जाता है तो बाहर की कंट्रीसाइड की जमीन को नदी की मिट्टी/बालू से पाट देता है और वह ऊँची हो जाती है। तब बाढ़ का पानी दूसरे गाँव का रास्ता पकड़ता है। पानी रास्ता तो खोज ही लेता है पर उसका इलाका बदल जाता है। अभी हालत यह है कि बाँध अगर टूटेगा तो नदी का पानी हमारे गाँव में आयेगा लेकिन यहाँ मिट्टी भर जाने से दूसरी ओर चला जायेगा। साथ ही बाहर का  पानी अब कमला में नहीं जायेगा क्योंकि उसकी पेटी ऊपर उठ गयी है। अनिश्चितता का यह दौर अब हमारी आदत बन चुकी है। यह तटबन्ध उस साल पास के दइया खरवारि गाँव में भी टूटा था जिसके चलते वहाँ काफी परेशानी हुई थी।‘

गेहुमां से होने वाले जल-जमाव और तथा अन्य समस्याओं के निदान के लिये 1963 में ही एक योजना (प्राक्कलित राशि 14,95,493 रुपये) मधुबनी लघु सिंचाई विभाग द्वारा तैयार कर के सरकार को भेजी गयी थी जिस पर मधेपुर और फुलपरास के प्रखंड विकास अधिकारियों की सिफारिश लगी हुई थी। राज्य सरकार ने  इसके क्रियान्वयन के लिये विधानसभा में आश्वासन भी दिया था मगर कोई काम नहीं हुआ। इस योजना में गेहमां के पानी को कोसी के पश्चिमी तटबन्ध को पार करके कोसी में गिराने की बात थी मगर नहर के इस मार्ग पर स्थानीय लोगों को ऐतराज था क्योंकि नदी को रास्ता देने के लिये बनाये जाने वाले तटबन्धों से जल-जमाव बढ़ने का खतरा था। और वहाँ लोगों की जोत का आकार छोटा था अतः जो कुछ भी जमीन बची थी वह इन निर्माण कार्यों में ही खप जाने का अंदेशा था। यह योजना तभी से अब तक लटकी हुई है।

कमला-बलान के तटबंध 1965 में 21 जगहों पर और 1987 में 24 जगहों पर टूटे थे। इनकी उपयोगिता इन दो उदाहरणों से ही स्थापित हो जाती है।

दिनेश मिश्र

डूप्लेक्स-29, वसुंधरा एस्टेट, एन. एच.-33,

पोस्ट-पारडीह, जमशेदपुर 831020 झारखंड

मो. 6202060927 ई-मेल dkmishra108@gmail.com

दिसम्बर-2021

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