दिनेश मिश्र
पृष्ठभूमि
1962 बिहार के लिये एक बुरे बाढ़ वर्ष के रूप में जाना जाता है। इस साल यहाँ उत्तर बिहार के प्रायः सभी जिले बाढ़ से आक्रान्त थे और इसका असर गंगा के दक्षिणी क्षेत्र पर भी कम नहीं पड़ा था। यहाँ हम तत्कालीन दरभंगा और वर्तमान समस्तीपुर जिले के एक गाँव लदौरा की चर्चा करेंगें जो बूढ़ी गंडक नदी के किनारे बसा हुआ है और इस नदी पर बने तटबन्ध के टूट जाने की वजह से पूरी तरह से तबाह हो गया था और उसका दंश यहाँ के लोग अभी भी भुगत रहे हैं।
बाढ़ग्रस्त लदौरा
“30 अगस्त, 1962 के दिन बूढ़ी गंडक नदी का तटबन्ध दरभंगा के समस्तीपुर सब-डिवीज़न के वारिसनगर थाने में लदौरा गाँव के पास सुबह चार बजे के करीब टूट गया था जिससे आसपासके गाँवों में जल-प्लावन हो गया था। तटबन्ध में पड़ी दरार के कारण लदौरा गाँव का नामोनिशान मिट गया था और उसके 80 फ़ीसदी घर बह चुके थे। लगभग 1200 आबादी वाला यह गाँव पूरी तरह उजड़ कर निर्जन हो गया था और कहीं-कहीं मलबे में किसी का कोई घरेलू सामान बिखरा हुआ दिखायी पड़ जाता था। शाम होते-होते लगभग साढ़े पाँच हजार एकड़ खेती की जमीन पानी में डूब गयी थी जिस पर मकई और धान की फसल लगी हुई थी। पूसा से दरभंगा जाने वाली मुख्य सड़क के ऊपर से नदी का पानी गुजर गया था और यह रास्ता बन्द हो गया था। इस थाने का पश्चिमी भाग पहले ही बागमती की बाढ़ से पीड़ित था और अब यह पूरा थाना ही अलग-थलग पड़ गया था। बाँध टूटने से आयी इस बाढ़ के कारण वारिसनगर और कल्याणपुर थानों के दर्जनों गाँव बाढ़ में फँस गये थे। नदी की इस दरार को विभाग ने शीघ्र ही भर देने का दावा किया था। यह तय था कि जब तक सरकार की तरफ से इन लोगों को पुनर्वासित करने की एक ईमानदार कोशिश नहीं होती है तब तक यह सभी लोग अपनी जड़ों से उखड़े रहेंगे।1 यह तटबन्ध इस साल मुंगेर जिले के बेगूसराय सब-डिवीज़न में ग्राम मिर्ज़ापुर, प्रखण्ड चेरिया बरियारपुर में भी टूटा था। 1956 में भी मुंगेर के बेगूसराय सब-डिवीज़न में टूट चुका था और उस साल ही इस तटबन्ध का निर्माण कार्य पूरा हुआ था।
“एक सरकारी प्रवक्ता के अनुसार लदौरा में बाँध टूटने से गाँव वालों को वहाँ से हटा कर सुरक्षित स्थानों में ले जाने का काम शुरू कर दिया गया था। जिलाधिकारी जे.सी. कुंद्रा के अनुसार सरकारी गोदाम से बाढ़ पीड़ितों को आवश्यक राहत सामग्री पहुँचायी जा रही थी। इस प्रवक्ता के अनुसार इस गाँव की आबादी दो थी और यह गाँव बह गया था और इसके साथ जिन दूसरे ग्यारह गाँवों पर इस बाढ़ का असर पड़ा था। इस गाँव के बाशिंदों को दूसरे सुरक्षित स्थानों तक पहुँचा दिया गया था।2
भुक्तभोगी ग्रामीणों से बातचीत
इन गाँवों के 80 प्रतिशत घर गिर गये थे और वह गाँव वीरान हो गये थे। लेखक ने लदौरा गाँव के बुजुर्ग लोगों से इस घटना की जानकारी लेने का प्रयास किया और उन्होनें जो कुछ भी बताया उसे हम उन्हीं के शब्दों में उद्धृत कर रहे हैं।
लदौरा के 75 वर्षीय सुखदेव सहनी बताते हैं कि, “1962 में मैं सयाना होगया था और मेरी शादी हो चुकी थी, बाल-बच्चे नहीं थे। उस साल यह तटबन्ध एकदम सुबह में टूटा था। हल्ला हुआ तो हम लोग बाँध की तरफ दौड़े। मगर बाँध तो एकदम बेशऊर हो चुका था। पानी का वेग इतना था कि एक बहता छप्पर पकड़ कर हम लोगों ने एक झोपड़ी के ऊपर रखना चाहा था तब तक पानी उसे बहा ले गया। यहाँ सरकार का एक चौकीदार रहा करता था और बाँध को कोई नुकसान पहुँचेगा, इसकी कोई आशंका नहीं थी। बाँध काफी ऊँचा और मजबूत था इसलिये हमलोग निश्चिन्त थे। जब बाँध टूट गया तो चौकीदार भाग गया। बाँध के साथ जो कुछ भी हुआ होगा उसे उसी ने देखा होगा। हम लोग तो केवल अंदाजा लगा सकते थे। प्रशासन आया दिन में दोपहर के आसपास और उनका सुझाव था कि पास में एक सेमल का पेड़ है उसे काट कर नदी में डाल दिया जाय तो उसकी धारा बदल जायेगी और गाँव बच जायेगा। गाँव क्या बचता, वह तो खत्म हो चुका था। जब यह किया गया तब नदी की धारा पश्चिम की ओर मुड़ गयी। धारा मुड़ने से जो गड्ढा बन गया था वह अभी भी मौजूद है। हम लोग अपना-अपना परिवार ले कर गाछी ( गाँव से लगे आम और दूसरे पेड़ों के बीच) में आ गये। अब पानी कब और कहाँ जायेगा इसका कोई ठिकाना नहीं था।
“हमारा लदौरा गाँव 2200 बीघे का गाँव है और इतने ही टोले उसमें हैं। सरकार ने हाथ उठा दिया था कि वह तुरन्त और कुछ नहीं कर सकती। बड़ी बरबादी हुई थी और गाँव में महीने भर से ज्यादा पानी टिका रह गया था। हमारे गाँव के दो बच्चे इस बाढ़ में मारे गये थे। प्रभु की क्या लीला है?
“रिलीफ हम लोगों को मिली जिसमें ज़्यादातर जनेर दिया गया था। आजकल चावल मिलने लगा है, भले ही उसकी गुणवत्ता कुछ भी न हो। बाद में खूंटा गाड़ कर उसमें बोर जमाये गये थे और पानी घटने पर बाँध की मरम्मत का काम शुरू किया गया था। वहाँ जो लोग काम करते थे
उनसे हमलोग पूछते थे कि क्या आप लोग नदी की धारा को मोड़ने का काम कर रहे हैं? इस पर उनका जवाब होता था कि नदी की धारा को मोड़ना हमारा काम नहीं है, हमलोग बाँध जैसा था वैसा बना कर चले जायेंगे।
“इस बाँध की वज़ह से हमारे गाँव की 165 बीघा ज़मीन नदी के उस पार चली गयी और हमारी समस्या अब यह है कि खेती करने के लिये उस पार हम जायेँ कैसे? हमारी उस ज़मीन को उस पार के बाजितपुर, जितवारपुर प्रखंड, जिला समस्तीपुर के गाँव वाले जोत रहे हैं। बाँध जब बाँधा गया था तब हमारा गाँव नदी से काफी दूर था पर पता नहीं क्यों यह तटबन्ध हमारे गाँव के बीचो-बीच से बनाया गया। अब डर लगता है कि अगर कभी बाँध टूट गया तो यहाँ रिंग बाँध बना दिया जायेगा और हमारा गाँव उसमें फँस जायेगा। इस बाँध के टूटने के बाद पुनर्वास तो मिला मगर सब को नहीं मिला। कुछ लोगों को जरूर मिला।
“2004 की बाढ़ में भी हमारे गाँव का कुछ हिस्सा पानी में डूबा हुआ था और घर भी गिरे थे। इन घरों में से कुछ की मरम्मत और कुछ को नये सिरे से बनाने के लिये चुना गया था। उनमें से भी कुछ लोगों को यह सुविधा मिली और कुछ को नहीं मिली। इस बीच अधिकारी बदल गये
जिसका मतलब था कि पूरी प्रक्रिया अब फिर नये सिरे से शुरू होगी। तब हम लोगों ने उम्मीद छोड़ दी। कहाँ तक उनके पीछे-पीछे घूमते? अब खाली भगवान से प्रार्थना करते हैं की यह त्रासदी फिर न भोगनी पड़े।“3
लदौरा का सवाल बिहार विधानसभा में उठा
लदौरा में घटित दुर्घटना का जिक्र बिहार विधानसभा की कार्रवाई रिपोर्ट में भी आता है जब विधायक रामसेवक सिंह ने इस घटना के बारे में सदन को बताया। उनका कहना था कि उस इलाके के लदौरा गाँव जाकर मैंने देखा है। वहाँ का बाँध जो टूटा है वह ऑफिसर की गलती से टूटा है। बाँध टूटने की खबर अखबारों में छपी थी कि चूहों ने एक छेद कर दिया और बाँध की मरम्मत कर दी गयी है परन्तु तीन बजे रात में जब बाँध टूटा तो पानी का वेग इतना तेज था कि क्या कहा जाये? यदि आदमी खड़ा होता तो पानी उसे फेंक देता। मैंने वहाँ जाकर लोगों से पूछा तो पता चला कि एक पैसा भी उनके पास नहीं है। लोगों ने कहा कि 14-14 घंटों तक हम लोग वर्षा में भीगते रहे और सूखे बाँध पर खड़े रहे। 14-14 घंटों तक बाल बच्चे पानी में फूलते रहे परन्तु सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली। किसी तरह की व्यवस्था नहीं की गयी। दो दिनों के बाद एक चादर टिन की मिली और तीन-चार दिनों के बाद त्रिपाल मिला। एक परिवार में 15-16 आदमी हैं और एक त्रिपाल उन्हें दिया गया तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कैसे इन लोगों का उससे गुजर हो सकता है? गेहूँ जो रिलीफ में बाँटा गया उसे पीसने के लिये उनके पास चक्की नहीं थी और मिल में पिसवाने के लिये उनके पास पैसे नहीं थे। मैंने अपनी आंखों से देखा है कि लोग ईंट से गेहूँ कूट कर भात की तरह पका कर खा रहे थे। मवेशियों के लिये चारे का भी कोई प्रबन्ध नहीं किया गया है। वहाँ के सभी मवेशी की ठठरी निकल आयी है। इस प्रकार बाँध और योजना के नाम पर खर्च किया जाता है और लोगों को परेशान किया जाता है।4
विधायक यदुनन्दन झा ने भी सरकार की लापरवाही की चर्चा करते हुए कहा कि लदौरा बाँध तथा रखवारी स्लुइस गेट का उदाहरण सामने है। बाँध टूट गये, इनके अधिकारियों को बाँध में कमजोरी का पूर्वाभास भी था फिर भी उन्होंने इसकी कोई समीक्षा नहीं की और न ही कोई उपाय किया। इनके स्लुइस गेट से पानी बहता रहा फिर भी उन्होंने इसे बन्द करने की चेष्टा नहीं की जिससे बहुत सारे गाँव बह गये।5
सत्ता पक्ष के नीतीश्वर प्रसाद सिंह ने भी स्वीकार किया कि बूढ़ी गंडक के बाढ़ का संचालन ठीक तरह से नहीं कर सके जिससे लोगों की परेशानियाँ बढ़ गईं और उन्होंने तटबन्धों की बेहतर निगरानी करने का सुझाव दिया।6
सरकार का जवाब
इस बहस का जवाब राजस्व मंत्री महेश प्रसाद सिंह ने देते हुए कहा कि विपक्ष भी हमारे अफसरों की प्रशंसा कर रहा है कि उन्होनें अपने काम को अंजाम दिया। ‘हमारी दिक्कत यह है कि अगर बाढ़ आती है और हम रिलीफ़ देते हैं, मुस्तैदी दिखाते हैं तो कहा जाता है कि आप वोट लेने के लिये अपनी तैयारी करते हैं…पैसे जो रिलीफ़ में होते हैं वे टेपरेरी रिलीफ़ है जिससे हम आदमी को बचाने की कोशिश करते हैं, मरते हुए जानवरों को जिंदा रखने की कोशिश करते हैं लेकिन परमानेंट रिलीफ़ में फ़्लड प्रोटेक्शन नहीं है…लदौरा और डालिया में थोड़ा सा बाँध टूटा है तो हमारे मित्रों ने कहा कि सरकार जवाबदेही को नहीं समझती है लेकिन ख्याल करे कि 450 मील में हम बाँध बाँधने की कोशिश करते हैं, नदियों को सीमित कर उन पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं, जिससे हमारी तकलीफ न बढ़े…सिंचाई विभाग से जो गफलत हुई है उसका जवाब आपको सिंचाई विभाग से मिलेगा लेकिन एमएआईएन इतना कह देना चाहता हूँ कि हम जिस बाढ़ को रोकने की कोशिश कर रहे हैं वह मनुष्य की शक्ति से बाहर है…प्रकृति के रंज का विरोध हम कहाँ तक कर सकते हैं?7
बहस के जवाब में सिंचाई मंत्री दीप नारायण सिंह ने भी स्वीकार किया कि,’ बूढ़ी गंडक का जो तटबन्ध टूटा है उससे काफी क्षति हुई है। वह तटबन्ध कमजोर था। पहले जो तटबन्ध था उसको बनाने की कोशिश की जा रही थी तब तक बाढ़ आ गयी और उसको तोड़ गयी। लदौरा का जो तटबन्ध है वह टूट गया है।’ उनके अनुसार वह खुद भी इस टूटे तटबन्ध को देखने के लिये विभाग के इंजीनियरों के साथ गये थे और उनका कहना था कि तटबन्ध का निर्माण ठीक हुआ है। लदौरा से नदी पौन मील के फासले पर थी लेकिन वह तटबन्ध टूट गया। बाँध पर पेड़ और घासों के बावजूद बाँध टूट गया…एकाएक पानी आया और उसका नतीजा हुआ कि जिस क्षेत्र में पानी नहीं पहुँचता था उसमें भी बाढ़ आ गयी। जैसा की राजस्व मंत्री ने कहा है कि जितने भी तटबन्ध बने हैं वह कहीं कहीं टूटे। यदि तटबंध नहीं रहते तो उत्तर बिहार की स्थिति और भी गंभीर हो जाती…बाँध बाँधना है मगर उसे इस तरह से बाँधना है जिससे अधिक से अधिक लोगों को फायदा हो मुझे इस बात का खेद अवश्य है कि बाँध कहीं-कहीं टूट गये। यदि बाँध नहीं टूटते तो मुझे सिंचाई मंत्री की हैसियत से खुशी होती। मैं आगे कोशिश करूंगा कि तटबन्ध टूटने नहीं पाये।’8
लदौरा वहीं का वहीं
विधानसभा में हुई वैचारिक बहस का लदौरा वासियों का कितना भला हुआ वह तो सुखदेव सहनी ने बता ही दिया था कि उनका उनका पुनर्वास अधूरा है और उनकी 165 बीघा जमीन उनके हाथ से निकल गयी जिसके बारे में ग्रामीणों ने खुद भी गम कर लिया है। इस बीच परिवार भी बढ़ा होगा और कम से कम दो पीढ़ियाँ गुजर गयी होंगी। व्यवस्था वहीं अटकी पड़ी है और उसके अफसर सदन के पक्ष और विपक्ष दोनों की ही प्रशंसा के पात्र हैं जो उन्होनें स्थिति को कितनी दक्षता से सम्हाला। समस्या यह है कि लदौरा की जनसंख्या भी हर साल बढ़ती ही जाती है और हम विस्थापन, पलायन और पुनर्वास की समस्या पर चेतना जागरण के लिये गोष्ठी कर के अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।
सन्दर्भ
- उत्तर बिहार की नदियों की विनाशलीला से भीषण क्षति-मकान धराशायी और फसलें बरबाद- बूढ़ी गंडक की विनाशलीला, आर्यावर्त-पटना, 3 सितम्बर, 1962, पृ. 5.
- बाढ़ से 800 गाँव तबाह-अनेक सुरक्षा बांध टूट गये-दरभंगा जिले के विभिन्न क्षेत्रों में भारी क्षति, आर्यावर्त-पटना, 3 सितम्बर, 1962, पृ. 7.
- श्री सुखदेव सहनी से व्यक्तिगत संपर्क
- सिंह, राम सेवक; बाढ़ से उत्पन्न स्थिति पर वादविवाद, बिहार विधानसभा वादवृत्त, 19 सितम्बर, 1962, पृ.17.
- झा, यदुनन्दन; उपर्युक्त, पृ. 18.
- सिंह, नीतीश्वर प्रसाद; उपर्युक्त, पृ.36-37.
- सिंह, महेश प्रसाद; उपर्युक्त, पृ. 37-45.
- सिंह, दीपा नारायण; उपरयुक्त, पृ. 46-51.